नईदुनिया, जबलपुर (Madhya Pradesh High Court)। हाई कोर्ट की जबलपुर बेंच में एक याचिका दायर कर नीट पीजी में एनआरआई कोटे की सीट आवंटन को चुनौती दी गई है। मामले पर प्रारंभक सुनवाई के बाद प्रशासनिक न्यायाधीश संजीव सचदेवा व न्यायमूर्ति विनय सराफ की युगलपीठ ने राज्य शासन से जवाब मांगा है।याचिकाकर्ता भोपाल निवासी डा. ओजस यादव की ओर से अधिवक्ता आलोक वागरेचा ने पक्ष रखा।
याचिकाकर्ता के अधिवक्ता ने दलील दी कि संचालनालय चिकित्सा शिक्षा द्वारा जारी प्राइवेट कालेज के सीट मैट्रिक्स यानि प्रत्येक वर्ग को आवंटित सीट के चार्ट को चिकित्सा शिक्षा प्रवेश नियम-2018 के विरुद्ध तैयार किया गया है।
एनआरआई कोटे हेतु नियमानुसार 15 प्रतिशत के स्थान पर अनेक ब्रांचों में 40 से 50 प्रतिशत आरक्षित कर दी गई हैं। इस कारण अनेक ब्रांचों में अनारक्षित कैटेगरी में एक भी सीट उपलब्ध नहीं है।
अधिवक्ता वागरेचा ने हाई कोर्ट को अवगत कराया कि हाई कोर्ट ने उस याचिका में याचिकाकर्ता को उचित फोरम में मुद्दा उठाने की स्वतंत्रता दी थी। इस मामले में याचिकाकर्ता स्वयं एक प्रभावित छात्र है, जिसे सीट मैट्रिक्स पर दावे आपत्तियों के लिए भी समय नहीं दिया गया है। हाई कोर्ट ने सरकार को एक सप्ताह में जवाब पेश करने कहा है।
वहीं अन्य मामले में हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति मनिंदर सिंह भट्टी की एकलपीठ ने अवैध गिरफ्तारी की जांच व क्षतिपूर्ति की मांग के मामले में नोटिस जारी कर दिए हैं। इसके जरिए -राज्य शासन, अनुविभागीय दंडाधिकारियों व पुलिस अधिकारियों से जवाब मांगा गया है। इसके लिए चार सप्ताह का समय दिया गया है। याचिकाकर्ता बरगी विस्थापित संघ के अध्यक्ष समाजसेवी राजकुमार सिन्हा, जनता दल के अध्यक्ष रामरतन यादव, अधिवक्ता अमनदीप सिंह, सामाजिक कार्यकर्ता अमित पांडे एवं संजय सेन की ओर से अधिवक्ता अरविंद श्रीवास्तव और राजेंद्र गुप्ता ने पक्ष रखा।
अधिवक्ता ने दलील दी कि जबलपुर के विभिन्न थानों की पुलिस द्वारा फरवरी, 2024 में न केवल याचिकाकर्ताओं की अवैध गिरफ्तारी की बल्कि दो दिन तक जेल में बंद रखा। इस मनमानी को गंभीरता से लेकर दो लाख रुपये व दोषी अधिकारियों के विरुद्ध कार्रवाई सुनिश्चित की जाए।
पुलिस ने याचिकाकर्ताओं को इस आरोप में गिरफ्तार किया था कि वे 13 फरवरी को दिल्ली में प्रस्तावित किसान रैली में ले जाने के लिए सार्वजनिक रूप से भड़का रहे थे। इस हरकत के जरिए शांति भंग कर रहे थे। जबकि उनकी ऐसी कोई योजना नहीं थी।
विभिन्न अनुविभागीय दंडाधिकारियों द्वारा जानबूझकर दो दिन तक उनके प्रकरणों की सुनवाई नहीं की गई। उनके द्वारा जमानत भरने से इंकार करने पर जमानत और मुचलके के फर्जी कागज लगा दिए गए। पुलिस, दंडाधिकारी व जिला प्रशासन का उक्त कृत्य न केवल अवैधानिक था बल्कि संविधान के अनुच्छेद-21 का खुला उल्लंघन भी था। लिहाजा, जांच कर दोषी अधिकारियों के विरूद्ध समुचित कार्यवाही की जानी चाहिए। साथ ही क्षतिपूर्ति राशि भी दिलवाई जानी चाहिए।