सुरेन्द्र दुबे, नईदुनिया, जबलपुर। मध्य प्रदेश की संस्कारधानी जबलपुर के नर्मदा तट पर शिव का त्रिशूल भेद स्थित है। यही वह स्थान है, जहां शिव ने त्रिशूल का आविर्भाव किया था। इसका उल्लेख स्कन्द पुराण के रेवा खंड में है। लम्हेटा घाट के उस पार रोमांच भरे रास्तों को पार कर त्रिशूल भेद पहुंचते हैं। भगवान शिव के इस लोक का दर्शन अपार आनंद से भर देता है। दरअसल, यह मंदिर जबलपुर से 35 किमी की दूरी पर स्थित है।
यह खूबसूरत और प्राचीन मंदिर जबलपुर के शहरी कोलाहल से कहीं दूर आज भी अनदेखा और अनछुआ लगता है। आज के दौर में भी लोग इस मंदिर के विषय में कम ही जानते हैं। त्रिशूल भेद ऐसी जगह है, जो शहरी कोलाहल और शोर शराबे से काफी दूर है। यहां ऐसा लगता है मानो हिमालय या कैलाश जैसे शांत शिवमय स्थल पर आ गए हो।
इस मंदिर के चारों ओर कलकल करती मां नर्मदा बहती हैं। पुजारी के अनुसार यहां आज भी भगवान शिव विद्यमान हैं और वह भक्तों की मनोकामना पूर्ण करते हैं। इस स्थल को त्रिशूल भेद क्यों कहा जाता है, इसकी कथा शिवपुराण में भी मिलती है। जिसमें अंधकासुर नाम का एक राक्षस तपस्या करता है और उसकी तपस्या से भगवान भोलेनाथ खुश होकर उसे दर्शन दे देते हैं। अंधकासुर ने भगवान शिव से अमरता प्रदान करने का वरदान मांगा और उसको यह वरदान मिलते ही वह अपने कुकर्मों से सबको सताने लगा।
अपने दिए वरदान से भगवान भोलेनाथ भी बंधे थे। इसलिए वे भी अंधकासुर को नहीं मार सकते थे। काफी विचार के बाद भोलेनाथ ने अपने त्रिशूल को अंधकासुर नामक राक्षस को मारने के लिए कहा, लेकिन भगवान शिव को उसने बताया कि यह संभव नहीं है, क्योंकि अंधकासुर मानव है और वह मानव को नहीं मार सकता। त्रिशूल ने तब शिव से कहा कि अगर वह अंधकासुर को मारता है, तो वह अपनी सारी दिव्य शक्ति खो देगा, फिर भी त्रिशूल जाकर उसे मारेगा।
त्रिशूल आगे बढ़ा और अंधकासुर को मार डाला, उसके बाद त्रिशूल ने अपनी शक्तियां खो दी। अपने त्रिशूल को फिर से शक्तियां देने के लिए भगवान शंकर इसे सभी शुभ जगहों पर ले गए। इसी बीच शिव ने इस त्रिशूल को नर्मदा नदी में बल के साथ जल में चला दिया। नैसर्गिक तरीके से त्रिशूल फिर से अपनी पूर्व शक्तिमय स्थिति में आ गया। यही वजह है की इस स्थान को त्रिशूल भेद कहा जाता है।